दिल्ली के दंगल में गच्चा खा गये अवध के ‘ओझा सर’!
शिक्षक से राजनेता बनने की चाहत नहीं चढ़ सकी परवान
रवि गुप्ता
- जानकारों की राय, पटपड़गंज के बजाये यूपी से जुड़े सीट से लड़ना चाहिये
- लोकसभा चुनाव में बीजेपी से प्रयागराज व कांग्रेस से अमेठी का टिकट था मांगा
- चर्चायें शुरू जब गोंडा के नहीं हुए तो दिल्ली कहां दुलारेगी, लोकल बनाम बाहरी हुआ
- सोशल प्लेटफॉर्म पर छाये रहे ओझा सर, जनता के बीच नहीं निकल पाये
लखनऊ। आखिरकार दिल्ली का चुनावी परिणाम आने के बाद यह तस्वीर साफ हो गई कि शिक्षक बनना भले ही आसान हो, मगर राजनेता बन पाना काफी मुश्किल है। दिल्ली में बीते दो दशक से देश की सबसे कठिन प्रतियोगी परीक्षा के लिये अभ्यर्थियों को हर तरह से तैयार करने वाले अवध के ओझा सर दिल्ली के चुनावी दंगल में गच्चा खा गये।
ऐसे में देखा जाये तो पहली बार जिस राजनीतिक तामझाम से ओझा सर ने पॉलीटिक इंट्री की, उसके अनुसार नतीजे उनके हक में नहीं आ सके और शिक्षक से राजनेता बनने की चाहत उनकी परवान नहीं चढ़ सकी। चुनावी नतीजे आने के बाद सोशल मीडिया से लेकर टीवी चैनलों पर डिबेट-समीक्षा शुरू हो गई हैं, केजरीवाल से लेकर सिसोदिया और उनके प्रमुख नेताओं के हारे जाने के कारण गिनाये जा रहे हैं। ऐसे में अवध ओझा के चुनावी परिणाम और उनके आगे के राजनीतिक कैरियर को लेकर तर्क-वितर्क और अटकलें लगनी शुरू हो गर्इं। इससे इतर, दिल्ली चुनाव से जुड़े कुछ राजनीतिक जानकारों की माने तो पहले तो चुनावी हवा को ओझा भांप नहीं पाये और दूसरे जिस पटपड़गंज सीट से पहला राजनीतिक दांव खेला वो उनके लिये उल्टा पड़ गया।
आगे कहना रहा कि पहले तो अवध ओझा को बीजेपी से राजनीतिक पारी शुरू करनी चाहिये थी, क्योंकि एक दशक से दिल्ली में आप की सरकार थी और कहीं न कहीं केजरीवाल को लेकर सत्ता विरोधी लहर बहनी शुरू हो गई थी। इसके बाद यदि आप से चुनावी आगाज शुरू किया तो उस सीट को चुनना चाहिये था जहां पर खासकर युवाओं और यूपी वासियों का कनेक्ट हो, क्योंकि अवध ओझा नतीजे आने के बाद खुद मान रहे हैं कि कहीं न कहीं वो लोगों से कनेक्ट नहीं हो पाये। उनका कनेक्शन केवल सोशल प्लेटफार्म पर कहीं अधिक रहा, जबकि जमीन और पब्लिक के बीच वो काफी कम दिखे। इसके उलट, जब तरूणमित्र टीम ने यूपी में अवध क्षेत्र के कुछ गोंडा जनपद वासियों से बात की जहां के ओझा सर मूल निवासी हैं...तो कईयों का दबे जुबां यही कहना रहा कि भईया, जब अवध के ई ओझा सर अपने गोंडा वालेन के नहीं भयेन और इतना मशहूर और पकड़-धकड़ होये के बावजूद अपने ई क्षेत्र के बदे कुछ नहीं कर पायेन...तो ऊहां दिल्ली वालेन उनके कहां दुलरहिऐं (दुलार), नतीजा तो इहै आवेक रहा।
गौर हो कि बीते 2024 के लोकसभा चुनाव में अवध ओझा कहीं न कहीं पहले बीजेपी से प्रयागराज और फिर कांग्रेस से अमेठी का टिकट चाहते थे, मगर बात नहीं बन सकी। हालांकि उस दौरान यह चर्चा काफी तेज उठी थी कि बीजेपी आलाकमान उन्हें कैसरगंज सीट से टिकट देना चाहती थी, जिस पर वो राज़ी नहीं हो पाये ...जिसके पीछे यही वजह चर्चा में आयी चूंकि इस सीट पर कहीं न कहीं पहले से ही राजनीतिक बाहुबली ब्रजभूषण शरण सिंह का दबदबा रहा, तो ऐसे में ओझा सर को बैकफुट पर आना पड़ा।
वहीं कुछ चुनावी विश्लेषकों का यह भी कहना रहा कि उक्त परिणाम आने से यह स्पष्ट हो गया कि केवल सोशल मीडिया पर जारी किये जाने वाले सैद्धांतिक उपदेश, संदेश, पठन-पाठन, लाइफस्टाइल टिप्स आदि देने भर से चुनावी वैतरणी नहीं पार की जा सकती है, बल्कि व्यवहारिक जीत के लिये कहीं न कहीं और किसी न किसी स्वरूप में हर उम्मीदवार को ‘चर्चा-पर्चा-खर्चा’ (पूर्व में किसी बड़े राजनेता का यह कथन रहा) के क्रमवार ट्रैक पर चलना पड़ता है...अब सवाल यह उठता है कि आखिर में ओझा सर इन तीनों में से किस एक अवयव से दूर रह गये या फिर इसके क्रमांक में उलटफेर कर गये जिसका खामियाजा उन्हें पहले चुनावी हार से भुगतना पड़ रहा।
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