सांसारिक भोगों से वियोग होने से ही प्रकृत सुख मिलेगा - स्वामी मुक्तिनाथानंद

सांसारिक आसक्ति से रहित होने से ही मन ईश्वर अभिमुखी होता है - स्वामी जी

सांसारिक भोगों से वियोग होने से ही प्रकृत सुख मिलेगा - स्वामी मुक्तिनाथानंद

लखनऊ। प्रात: कालीन सत् प्रसंग में रामकृष्ण मठ लखनऊ के अध्यक्ष स्वामी मुक्तिनाथानंद जी ने बताया कि सांसारिक वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि में जो प्रियता है उसको आसक्ति कहते हैं, उस आसक्ति से रहित होने का नाम ही अनासक्ति है। 
 
सांसारिक वस्तुओं और व्यक्तियों आदि से सुख लेने की इच्छा से, सुख की आशा से और सुख के भोग से ही मनुष्य की उसमें आसक्ति होती है। कारण कि मनुष्य को संयोग के सिवाय सुख नहीं दिखता इसलिए उसको संयोग जनित सुख प्रिय दिखता है, परंतु वास्तविक सुख संयोग के वियोग से ही होता है इसलिए साधक के लिए सांसारिक आसक्ति का त्याग करना बहुत ही आवश्यक है। 
श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय के 23 वें श्लोक को उद्धृत करते हुए स्वामी मुक्तिनाथानंद जी जी ने बताया - 
 
*तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।*
*स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा।।*
 
   अर्थात "जो दुःख रूप संसार के संयोग से रहित है तथा जिसका नाम योग है; उसको जानना चाहिए। वह योग न उकताए हुए अर्थात धैर्य और उत्साहयुक्त चित्त से निश्चयपूर्वक करना कर्तव्य है।"
 
जिसके साथ हमारा संबंध है ही नहीं, हुआ नहीं और होना संभव भी नहीं - ऐसे दुःख रूप सांसारिक सुख के साथ संबंध मान लिया यही दुःख योग है। यह दुःख योग, योग नहीं है अगर ये योग होता अर्थात संसार के साथ हमारा नित्य संबंध होता तो इस दुःख योग का कभी वियोग नहीं होता। परंतु बोध होने पर जिसका वियोग हो जाता है इससे सिद्ध होता है कि दुःख संयोग केवल हमारा माना हुआ है, हमारा बनाया हुआ है स्वाभाविक नहीं है। इसे कितनी ही दृढ़ता से संयोग मान ले और कितने ही दीर्घकाल तक संयोग मन ले तो भी इसका कभी संयोग नहीं हो सकता है। अतः हम इस माने हुए आगंतुक दुःख योग का वियोग कर सकते हैं। इस दुःख योग संसार का वियोग करते ही स्वाभाविक योग की प्राप्ति हो जाती है अर्थात स्वरूप के साथ हमारा जो नित्य योग है उसकी हमें अनुभूति हो जाती है। 
 
स्वरूप के साथ नित्य योग को ही योग समझना चाहिए। यह स्वरूप के साथ हमारा नित्य योग है, दुःख रूप संयोग काल में भी संयोग का आरंभ और अंत होता रहता है। परंतु इस नित्य योग का कभी आरंभ और कभी अंत नहीं होगा। कारण कि यह योग मन, बुद्धि और पवित्र पदार्थ से नहीं होता अपितु इसके संबंध विच्छेद से ही होता है। यह नित्य योग स्वत: सिद्ध है इसमें सबकी स्वाभाविक स्थिति है परंतु अनित्य संसार से संबंध मानते रहने के कारण इस नित्य योग की विस्मृति हो गई है। संसार से संबंध विच्छेद होते ही नित्य योग की स्मृति हो जाती है। इसी को अर्जुन ने "स्मृति लब्धा" कहा है अर्थात यह योग नया नहीं हुआ है। अपितु जो नित्य योग है उसी की आवृत्ति हुई है। श्री भगवान ने दुःख के संयोग का नाम भी वियोग बताया है। 
 
स्वामी मुक्तिनाथानंद जी* ने बताया अतएव हम लोग इस प्रकार चिंतन करते हुए अगर सांसारिक भोग सुख से दूर रहे तब अपना स्वरूप उन्मोचित करते हुए जीवन का लक्ष्य प्राप्त कर लेंगे एवं इस मानव शरीर में ही ईश्वर का दर्शन करते हुए जीवन सार्थक और सफल हो जाएगा। 

 

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