चुनावी कुरुक्षेत्र: बांसुरी बजाते रहे रवि किशन, काज़ल चुरा ले जाये न कोई

-योगी के गृह क्षेत्र से दोबारा रवि किशन मैदान में, अभी तक नहीं बन सकी सार्वजनिक स्वीकार्यता

चुनावी कुरुक्षेत्र: बांसुरी बजाते रहे रवि किशन, काज़ल चुरा ले जाये न कोई

रवि गुप्ता

-योगी के प्रतिनिधि के तौर पर गोरखपुर वासियों के मन-मस्तिष्क में फिट नहीं बैठ पा रहे रवि किशन
-सेल्फी खिंचवाने तक पब्लिक का आकर्षण, योगी के वहां रहते हो जाते हैं एक्टिव बाकी दिन सामान्य
-गोरखपुर सीट पर कड़ी टक्कर दे रहीं गठबंधन प्रत्याशी काज़ल निषाद, जोरों पर चुनावी कैम्पेन -काज़ल निषाद पूर्व में यहां से कैम्पियरगंज विधानसभा व गोरखपुर मेयर का भी चुनाव लड़ चुकीं
लखनऊ। 2024 के चुनावी रणक्षेत्र की दुदुंभी काफी पहले बज चुकी है और अब मौजूदा स्थिति यह है कि केवल आखिरी चरण का चुनाव रह गया है और शेष तकरीबन 80 फीसद मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग कर दिया है, तो दूसरी तरफ इतने प्रतिशत प्रत्याशियों का राजनीतिक भविष्य भी ईवीएम मशीनों में कैद हो चुका है। अंतिम फेज के लोकसभा चुनाव की स्थितियों व सीटों पर गौर करें तो इनमें से वाराणसी के बाद गोरखपुर सीट ऐसी है, जोकि सूबे में सत्ताधारी दल यानी योगी के राजनीतिक साख से सीधे तौर पर जुड़ा है।

कहने को योगी भले ही गोरखपुर से बतौर प्रत्याशी न लड़ रहे हों, मगर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि कई साल पूर्व चाहे वो इसी सीट पर मठ से बाहर निकलते हुए सबसे युवा सांसद के तौर पर सदन के लिये चुने गये हों...और अब चाहे देश की सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य यूपी शासन के मुखिया के रूप में लगातार दूसरी बार सरकार चला रहे हों, गोरखपुर के लिये उनकी कथनी-करनी, सोच-समझ में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ। इसको इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि आज भी जब उन्हें मौका मिलता है उनका काफिला गोरखपुर पहुंच जाता है और तमाम व्यस्तताओं के बावजूद वो वहां पर जनता दरबार लगाने से नहीं चूकते, या फिर गायों को गुड़-चारा खिलाते और बच्चों को टॉफी-उपहार देना नहीं भूलते।

गोरखपुर वासियों ने बातचीत में कहा कि शायद महाराज जी (क्षेत्र में इसी नाम से चर्चित) की यही बातें हैं जो यहां के लोगों के मन-मस्तिष्क से उनकी आंतरिक जुड़ाव वाली उपस्थिति को धुंधली नहीं होने देती।वहीं भाजपा से जुडेÞ पार्टी जानकारों की माने तो रवि किशन का कोई राजनीतिक जमीन पर पकड़ नहीं है, जबकि दूसरी तरफ इतने बडे ओहदे पर होने के बावजूद योगी आज भी गोरखपुर जाते हैं तो वहां लोगों से हिलमिल जाते हैं। ऐसे में यह भी एक बड़ा फैक्टर है जोकि रवि किशन को क्षेत्र के कोर पढ़े-लिखे और मध्यवर्गीय वोटरों से दूर करता है।

क्षेत्र में तो चर्चा यह भी रहती है कि रवि किशन गोरखपुर की जमीन पर जनता-जनार्दन के बीच कम, बल्कि इससे जुडे फिल्मी रील-डॉयलाग, गीत-संगीत में ज्यादा दिखते हैं जोकि यहां के जमीनी हकीकत से कोसों दूर है। ऐसे में यह भी राजनीतिक कयास लगाये जा रहे हैं कि कहीं अबकी बार के चुनावी रणक्षेत्र में रवि किशन, ‘मुगालते की राजनीति’ का शिकार होकर अपने नाम के अनुरूप बंसी न बजाते रह जाये और दूसरी ओर चार जून को चुनावी जीत का काज़ल कोई और चुरा ले जाये।
गोरखपुर, अभेद्य किला नहीं रहा है...!
लेकिन, वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर गौर करें और वहां के कुछ वरिष्ठजनों की माने तो पांच बरस बीतने के बावजूद अभी तक महाराज जी के राजनीति प्रतिनिधि के तौर पर भोजपुरी अभिनेता से नेता बने रवि किशन न तो गोरखपुर को अपना सके और न ही गोरखपुर वाले उन्हें अर्न्तमन से अपना मान सके। क्षेत्र के तमाम युवाओं से बातचीत में पता चला कि काज़ल निषाद जोकि सपा-कांग्रेस इंडिया गठबंधन प्रत्याशी हैं, उनका चुनावी कैंपेन जोर-शोर से चल रहा है। कॉलोनी से लेकर गली-मोहल्ले और गांव-कस्बे तक उनके लोग पहुंच रहे हैं। यही नहीं वो पूर्व में गोरखपुर के कैम्प्यिरगंज विस सीट से विधायकी तो गोरखपुर से मेयर का भी चुनाव लड़ चुकी हैं, यानी वो एक लम्बे अर्से से चुनावी प्रत्याशी के तौर पर लोगों के जेहन में एक खास इमेज़ बनाती आ रही हैं।

वैसे भी गोरखपुर में जातियों के समीकरण को देखें तो निषाद समुदाय की एक बड़ी आबादी है, और इतना ही नहीं पूर्व में यहां के लोकसभा उपचुनाव में बीजेपी उम्मीदवार को पराजय का भी मुंह देखना पड़ा है...यानी यह भी कहा जा सकता है कि गोरखपुर कोई अभेद्य किला नहीं रह गया है जिसे ढहाया न जा सके। वैसे यह भी बता दें कि इससे पहले रवि किशन अपने गृह जनपद जौनपुर से बतौर कांग्रेस प्रत्याशी राजनीति में पहली बार इंट्री किये थे, मगर जनता ने उन्हें नकार दिया। इसके बाद बदलते राजनीतिक परिवेश में उन्होंने बीजेपी का दामन थामा और जैसे-तैसे करके उन्हें योगी के गृह क्षेत्र गोरखपुर से सांसदी का टिकट मिल गया और पहली बार जीतते हुए अब वो दूसरी बार चुनावी दंगल में अपनी राजनीतिक साख बचाने में लगे हैं। 

 
 
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