हरिशयनी एकादशी पर गंगा में श्रद्धालुओं ने लगाई आस्था की डुबकी, चातुर्मास व्रत का हुआ शुभारंभ
चार माह तक नहीं होंगे मांगलिक कार्य, संत करेंगे जप-तप ,शिव की आराधना
वाराणसी। आषाढ़ शुक्ल एकादशी यानी हरिशयनी एकादशी के पावन अवसर पर रविवार को धर्म नगरी काशी में श्रद्धालुओं ने पवित्र गंगा में आस्था की डुबकी लगाकर श्रीहरि विष्णु की आराधना की, दान-पुण्य किया और व्रत रखा। इसी के साथ संतों, सदगृहस्थों का चार माह चलने वाला 'चातुर्मास' व्रत भी आरंभ हो गया है, जो कार्तिक शुक्ल एकादशी (हरिप्रबोधिनी) तक चलेगा।
हरिशयनी एकादशी से भगवान विष्णु क्षीरसागर में योगनिद्रा में चले जाते हैं। इस दौरान सभी शुभ और मांगलिक कार्यों पर विराम लग जाता है। विवाह, गृह प्रवेश, मुंडन, यज्ञोपवीत आदि मांगलिक कार्य अब कार्तिक शुक्ल एकादशी के बाद ही संपन्न होंगे।
—चातुर्मास: चार महीनों की साधना और संयम की अवधि
चातुर्मास की अवधि को सनातन धर्म में अत्यंत पवित्र माना गया है। संत-महात्मा इस दौरान अपने आश्रमों या मठों में रहकर तप, जप और श्रीहरि की आराधना करते हैं। वे श्री विष्णुसहस्रनाम, श्री विष्णु चालीसा, पुरुषसूक्त, विष्णु मंत्रों का पाठ करते हैं और संयमित जीवन जीते हैं।
गृहस्थजन भी चातुर्मास्य व्रत का पालन करते हैं। वे इस अवधि में पत्तेदार सब्जियां, भाद्रपद मास में दही, आश्विन मास में दूध और बैंगन जैसे तामसिक खाद्य पदार्थों का त्याग करते हैं। व्रती प्रायः भूमि पर शयन करते हैं और दिन में एक बार सात्विक भोजन करते हैं।
—महादेव करते हैं सृष्टि का संचालन
शिव आराधना समिति के डॉ. मृदुल मिश्र के अनुसार, चातुर्मास के दौरान भगवान विष्णु योगनिद्रा में रहते हैं, ऐसे में सृष्टि का संचालन भगवान शिव करते हैं। इसी कारण इस कालखंड को शिव उपासना और साधना के लिए भी विशेष माना गया है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, भगवान विष्णु ने राजा बलि को दिए वरदान के अनुसार पाताल लोक में निवास किया था। यही कारण है कि यह समय उनकी योगनिद्रा का काल माना जाता है।
—आध्यात्मिक साधना का श्रेष्ठ समय
डॉ मिश्र ने बताया कि चातुर्मास का समय आत्म-चिंतन, साधना, धर्मग्रंथों के पठन-पाठन, इंद्रिय संयम, सात्विक आहार और पुण्य कार्यों का उत्तम काल होता है। रामायण, श्रीमद्भागवत गीता और अन्य धर्मग्रंथों का पाठ, तीर्थयात्रा, सेवा और दान के माध्यम से आत्मिक उन्नयन का प्रयास किया जाता है। सनातन धर्म में यह अवधि केवल व्रतों और त्याग की ही नहीं, बल्कि जीवन को अधिक सात्विक, अनुशासित और ईश्वरमय बनाने का अवसर भी है।
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