वो आपातकाल था तो ये क्या है..!!

वो आपातकाल था तो ये क्या है..!!

(पवन सिंह)
अगर आप सजग न रहे तो सत्ता और मीडिया का खतरनाक गठजोड़ आपको नफरती बना देगा..!! मीडिया आपमें शोषक के प्रति ही सहानुभूति पैदा कर देगा और जिसका शोषण हो रहा है, उसे अपराधी करार देगा..!! 2014 के बाद से भारत के मेन स्ट्रीम मीडिया ने सत्ता के साथ गलबहियां करके यही किया है।‌मीडिया ने अघोषित आपातकाल, अन्याय, गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी और शर्म जैसे विषयों को गौरव का विषय बना दिया..!! और तुर्रा ये कि मीडिया आपको 1975 के उस आपातकाल की ओर ले गया, जिसका समर्थन ऐसे लोगों ने किया था, जो आज फर्जी राष्ट्रवाद का सिंदूर लगा कर टहल रहे हैं। 
जनता के प्रति जवाबदेह न होना..11 सालों में एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस न करना...उत्तर प्रदेश और बिहार में नौकरियां मांगने व रिक्त पदों को भरने की मांग को लेकर धरना दे रहे और प्रदर्शन करने वाले छात्र-छात्राओं पर बर्बर लाठीचार्ज कर देना... इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रदर्शनकारी छात्रों को उनके किराये के मकानों में घुसकर पीटना, वरिष्ठ नागरिकों से रेल की सुविधा छीन लेना, पुरानी पेंशन व्यवस्था को समाप्त कर देना...किसी भी आम आदमी की पीड़ा को पूरी तरह से नजर अंदाज कर देना...इसे संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का हनन माना जाना चाहिए या नहीं। अखबारों और चैनलों के मालिकों को खरीद लेना.. जनता के सरोकारों के विषयों/खबरों को पूरी तरह से न्यूज़ चैनलों से गायब कर देना इसे इमरजेंसी की किस श्रेणी में रखा जाए..!! या ये चर्चा केवल 1975 वाली दो साल की इमरजेंसी पर ही होगी या 11 सालों से अघोषित इमरजेंसी पर होगी? अपने ही देश के नागरिकों को सत्ता के लिए आपस में लड़ाकर रखना। हेट स्पीच पर केवल एक पक्षीय कार्रवाई को अघोषित इमरजेंसी माना जाए या न माना जाए?
न्यायिक व्यवस्था और उसकी न्यायिक परिभाषा को धूलधूसरित कर देना, रिटायर्ड जजों को लालच या धमकी देना और फिर पद से नवाजा जाना...यह किस तरह की इमरजेंसी के तहत आएगा? 
निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता वर्तमान में शून्य हो चुकी है...एक पूरी की पूरी संवैधानिक संस्था को ही लगभग खिलौना बनाकर रख देना...इसे क्या नाम दिया जाए? बार-बार वोटर लिस्ट में व्यापक गड़बड़ियां करके अपने पक्ष में खेल खिलवाना...क्या माना जाए? पहले हर विदेशी दौरों पर मीडिया साथ जाता था और उस दौरे से देश को क्या लाभ होंगे, किन-किन विषयों पर बात हुई...उसकी जानकारी साझा होती थी...यह सब 11 सालों से बंद क्यों हुआ? सिर्फ गाना-बजाना.. ढोल-मंजीरा लेकर नचनिया बने पत्रकारों के झुंडों को प्रश्रय देना...इसे इमरजेंसी के खांचे में फिट किया जा सकता है कि‌ नहीं?
यूट्यूब चैनलों पर जो पत्रकार खबरों और विश्लेषणों को आम जनता से साझा कर रहे हैं...उन्हें ब्लाक क्यों किया जा रहा है? ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स जैसी एजेंसियां भ्रष्टाचार रोकने के अपने मूल उद्देश्य से भटक कर सत्ता बनायें रखने में कैसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगीं, इसे कौन सा आपातकाल माना जाए? 
विकास के नाम पर जंगलों को एक तरफा काट देना... लोगों की जमीनों का बल पूर्वक अधिग्रहण कर लेना..... लोगों की झुग्गी-बस्तियों को बुल्डोजरों तले चंगेज खान की तरह रौंद देना ... पीड़ितों पर ही FIr  करा कर जेल भेज देना...आदिवासियों की सैकड़ों की संख्या में हत्या और मीडिया की आश्चर्यजनक व रहस्यमय चुप्पी को किस आपातकाल के संदर्भ में देखा जाए? कुछ रोज पहले सुप्रीम कोर्ट ने चिंता जताई कि लाखों बेकसूर जेलों में हैं, जो कि भयावह है!! यह क्या है? 
एक उदाहरण पेश है-एनडीटीवी के मालिक प्रवण राय पर सरकार के इशारे पर दर्ज केस हुआ और छापा पड़ा। फिर जांच शुरू हुई। मीडिया का एक दूसरा वर्ग जो घुटने टेक कर टेकचंद बन चुका था, अब बारी एनडीटीवी की थी..क्योंकि अघोषित आपातकाल में ऊंची आवाजें और सवाल पसंद नहीं किये जाते..!!!लगा कि एनडीटीवी ने मालिकान ने बहुत बड़ा आर्थिक घोटाला किया है...प्रणव राय ने आखिरकार हार मान ली और एनडीटीवी एकमेव राष्ट्रीय उद्योगपति ने टेकओवर कर लिया। धीरे-धीरे सारे  असल पत्रकार वहां से भगा दिए गए या खुद ही छोड़कर चले गये।...यहां तक भी ठीक था... लेकिन एकमेव राष्ट्रीय उद्योगपति के चैनल खरीदते ही प्रणव राय के केस में क्लोजर रिपोर्ट दाखिल हो गई। केस खत्म हो गया..असल सवाल वहीं का वहीं खड़ा है कि
अगर प्रणव राय दोषी थे तो छूटे क्यों ? अगर दोषी नहीं थे तो यह सब हुआ हुआ क्यों ? 2014 के बाद आपको ऐसे दर्जनों केस मिल जायेंगे...अगर आप खिलाफ थे और विपक्ष में थे तो ईडी थी, सीबीआई थी, इनकम टैक्स था... लेकिन फिर वे सारे के सारे भ्रष्टाचारी अचानक उधर से इधर आ जाते हैं...और फिर सब कुछ समाप्त....!!! ऐसा भारत के इतिहास में कब होता था? इसे कौन सा आपातकाल माना जाए?
दरअसल, 1975 वाली घोषित इमरजेंसी से सबसे ज्यादा नाराज कौन था? घोषित इमरजेंसी से सबसे ज्यादा तकलीफ़ किसको थी? आम आदमी को तो कोई दिक्कत नहीं थी..ट्रेनें एकदम राइट टाइम चलने लगी थीं, सरकारी कार्यालयों में लोग बिलकुल राइट टाइम आने लगे थे, घूस मांगने की हिम्मत जवाब दे गई थी...अनाज में मिलावट और घटतौली बंद हो गई थी...फिर परेशान कौन था? 
परेशान थे जमींदार..!! परेशान थे सामंतवादी..!! जमींदारों और भूस्वामियों की संपत्तियों पर आंच आई और उनका प्रभाव कम हुआ...तमाम जमीनें भूमि विहीन किसानों/खेतिहरों को मिलीं...निजी बैंक खोल कर जनता का पैसा हड़पने वाले परेशान हुए क्योंकि 1969 में 14 प्रमुख वाणिज्यिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया था (1980 में 6 और बैंकों का राष्ट्रीय करण हुआ) इससे बैंकों के दिवालिया होने का खतरा खत्म हुआ छोटे किसानों को भी कृषि, छोटे उद्योगों और ग्रामीण क्षेत्रों को ऋण प्राथमिकता से मिलने लगे और साहूकारों की दुकान बंद हुई। अब इससे नाराज कौन था?  निजी बैंकर और उद्योगपतियों ने अपना नियंत्रण बैंकों पर से खो दिया और इसे सरकारी हस्तक्षेप माना। रूढ़िवादी अर्थशास्त्री परेशान थे उनका मानना था कि इससे नौकरशाही का प्रभाल बढ़ेगा।
जबकि गरीब, किसान और समाजवादी विचारधारा वाले लोग इसे समानता और आर्थिक न्याय की दिशा में कदम मानते थे। पूर्व राजघरानों को मिलने वाले प्रिवी पर्स (विशेष भत्ते) को समाप्त कर दिया गया जो स्वतंत्रता के समय राजाओं के साथ हुए समझौते का हिस्सा था...इससे नाराज कौन था? अंतिम और अकाट्य सत्य यह है कि होमी जहांगीर भाभा की हत्या में अमेरिकी खुफिया एजेंसी CIA की जो भूमिका थी, वह भयावह थी। CIA की पूरी योजना ही इस आजाद देश को तबाह करने की थी और समय रहते ही रूस द्वारा इनपुट्स मिले और आपातकाल लगा...!! बाद में उसके लिए माफी भी मांग ली गई और आम जनता ने बाद में बंपर वोटों से वापस आपातकाल लगाने वालों को सत्ता सौंप दी। 
फिलहाल उपरोक्त अनेक सुधारों से भारत के गरीबों के बीच से एक बहुत बड़ा वर्ग उभरा, वह था मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग..जो आज 1975 को गालियां बकता हुआ वहीं पहुंच चुका है जहां से वह मध्यम वर्ग के सुख तक आया था..!! अब तय आपको करना है कि घोषित आपातकाल सही था या अघोषित आपातकाल..!!! 500 रूपए और चार पूड़ी लेकर अगर आप बिना सोचे-समझे भीड़ के साथ नाच-गा रहे हैं तो फिर इसी में मस्त रहिए..!! क्योंकि "कुछ" लोगों को घी हजम नहीं हुआ करता,..!!

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‘तरुणमित्र’ श्रम ही आधार, सिर्फ खबरों से सरोकार। के तर्ज पर प्रकाशित होने वाला ऐसा समचाार पत्र है जो वर्ष 1978 में पूर्वी उत्तर प्रदेश के जौनपुर जैसे सुविधाविहीन शहर से स्व0 समूह सम्पादक कैलाशनाथ के श्रम के बदौलत प्रकाशित होकर आज पांच प्रदेश (उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और उत्तराखण्ड) तक अपनी पहुंच बना चुका है। 

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