1885 में ही दर्ज हुआ श्रीराम जन्मभूमि को लेकर पहला मुकदमा
लखनऊ। 1857 के विद्रोह की आग में देश जल ही रहा था। अंग्रेजी हूकूमत से हिन्दू और मुसलमान दोनों समान रुप से प्रताडि़त थे। यह वक्त ऐसा था जब अभूतपूर्व हिंदु-मुस्लिम एकता भी कायम हुई। लेकिन श्रीराम जन्मभूमि का मसला हल नहीं हो पाया। विवाद बढ़ा तो अंग्रेजी प्रशासन ने विवादित स्थल को तारों के बाड़े से घेर दिया। हांलाकि अवध के नबावों के समय में ही हिन्दु मुस्लिम दोनों को पूजा और नमाज की इजाजत दे दी गई थी। 1885 आते-आते देश मध्यकालीन न्याय व्यवस्था की जकडऩ से मुक्त होकर आधुनिक न्याय व्यवस्था के प्रारंभिक चरण में प्रवेश करना शुरू कर चुका था। फैजाबाद के जिला जज की अदालत में 25 मई 1885 को पहली बार श्रीराम जन्मभूमि का मामला पहुंचा और कानूनी लड़ाई का सूत्रपात हो गया।
विवादित ढांचे को अलग करने को दीवार बनी
फैजाबाद गजेटियर के अनुसार अयोध्या में विवादित ढांचे के पास निर्मोही अखाड़े के महंत रघुवर दास ने एक ऊंचा मंच बनाया। इसी मंच पर महंत रघुवर दास ने राममंदिर का निर्माण शुरू कर दिया। जिसे लेकर मुस्लिम पक्ष ने फैजाबाद जिला मजिस्टे्रट के यहां विरोध दर्ज कराया। जिसके बाद निर्माण कार्य को रुकवा दिया गया और मंच और बाबरी ढांचे को अलग करने के लिए एक दीवार बनाई गई थी।
इसके बाद महंत रघुवर दास ने चबूतरे के निर्माण और उसके मालिकाना हक का दावा करते हुए फैजाबाद के उपन्यायधीश की अदालत में मुकदमा दायर कर दिया। हांलाकि उप न्यायधीश और जिला न्यायधीश अनुमति देने से इंकार कर दिया। लेकिन महंत ने न्यायायिक आयुक्त अवध की अदालत में मामला दायर कर दिया। न्यायायिक आयुक्त ने यथास्थिति में किसी भी बदलाव से इंकार कर दिया और साल 1934 तक स्थिति यथावत कायम रही।
हिंदुओं की भूमि पर मस्जिद बनाई गई यह दुर्भाग्यपूर्ण है
फैजाबाद के जिला जज कर्नल एफईए शेमियर ने 18 मार्च 1986 को श्रीराम जन्मभूमि का निरीक्षण करने का फैसला किया। उन्होंने निरीक्षण के बाद कहा कि हिंदुओं के पवित्र भूमि पर मस्जिद बनाई गई है, यह दुर्भाग्यपूर्ण है। इसके बाद दो बार ऐसा अवसर आया जब हिंदूओं ने जन्मभूमि पर कब्जा कर लिया। साल 1912 और 1934 में साधुओं ने और हिंदू जनता ने मिलकर बाबरी ढांचे पर धावा बोल दिया और तोड़-फोड़ शुरू कर दिया। इसके बाद जन्म भूमि एक तरह से हिंदुओं के कब्जे में आ गई, लेकिन अधिक दिनों के लिए नहीं। अंग्रेज सरकार ने कब्जा छुड़वाकर उस स्थान की फिर से मरम्मत कराई।
कोर्ट ने कहा मस्जिद हिंदुओं के पवित्र मानी जाने वाली जमीन पर बनाई गई
निर्मोही अखाड़े के महंत रघुवर दास का मुकदमा बाद के दिनों में अदालती कार्यवाहियों में मजबूत आधार साबित हुआ। महंत रघुवर दास ने फैजाबाद के सब जज कोर्ट में केस किया था। जिसमें मस्जिद परिसर के भीतर मौजूद 17 गुणे 21 फीट के चबूतरे पर मंदिर बनाने की अनुमति मांगी थी। यह वह स्थान था जहां श्रीराम की चरण पादुका लगाई गई थी और नियमित पूजा भी हो रही थी। दीवानी मुकदमों में फैजाबाद की जिला अदालत ने 1886 में कहा कि मस्जिद अयोध्या में हिंदुओं द्वारा पवित्र मानी जाने वाली जमीन पर बनाई गई थी। हांलाकि उसमें मंदिर निर्माण की अनुमति नहीं थी। जमीन के मालिकाना हक का समाधान निकालने का मुस्लिम पक्ष का दावा गलत है।
फैजाबाद से हाईकोर्ट पहुंचा मामला
अयोध्या पुस्तक के लेखक सुदर्शन भाटिया लिखते हैं कि मुसलमान हिंदुओं के इस तर्क से कत्तई सहमत नहीं थे। उन्होंने कहा था कि 1885 के मुकदमे को जमीन के मालिकाना हक के समाधान के तौर पर स्वीकृत नहीं दी जा सकती। क्योंकि यह केवल भूमि के एक हिस्से बाहरी भाग पर चबूतरे को लेकर था। बाद के दावों में पूरे विवादित स्थान को शामिल किया गया। इसलिए दावे का कोई आधार नहीं रह जाता। अब मामला हाईकोर्ट पहुंच गया। विवाद की सुनवाई के दौरान यह स्थिति सामने आई कि 1885 में महंत रघुवर दास ने राम चबूतरा इलाके में मंदिर के निर्माण के लिए याचिका दायर किया था।
बाकी मस्जिद के मुअज्जिन मोहम्मद अशगर ने इसका विरोध किया। उन्होंने भूमि के सीमांकन में मात्र कुछ बातों का विरोध किया था और पर्याप्त आपत्तियां नहीं उठाई थी। इसलिए मुकदमा खारिज कर दिया गया। जन्मभूमि आंदोलन को करीब से देखने और समाचार के लिए अयोध्या में मौजूद रहने वाले कारसेवा से कारसेवा पुस्तक के लेखक वरिष्ठ पत्रकार गोपाल शर्मा लिखते हैं कि 1885 में सिविल अपील संख्या 27 पर फैसला देते हुए जिला न्यायाधीश एफ ई ए शेमियर ने लिखा कि यह दुर्भाग्य पूर्ण है कि ऐसे किसी स्थान पर मस्जिद बनाई गई जिसे हिंदू पवित्र मानते हैं। 365 साल पहले घटी घटना की शिकायत इतनी देर हो जाने के बाद दूर नहीं की जा सकती।
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